Sunday, 19 June 2016

BAAP - REZA SIRSWI/ SHADMAN REZA

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दिन ढले जब करके मज़दूरी 'रज़ा' आता है बाप।

देख के हँसते हुए बच्चों को सुख पाता है बाप।।

 

सामने आँखों के जिस बेटे के मर जाता है बाप।

लम्हा लम्हा ज़िन्दगी भर उसको याद आता है बाप।।

 

जाने कितने ख़्वाब करते हैं सफ़र बच्चों के साथ।

घर से पहली बार जब स्कूल ले जाता है बाप।।

 

उम्र भर रहती है उस बेटे के दिल में एक ख़लिश।

जब तरक़्क़ी देखने से पहले मर जाता है बाप।।

 

थाम कर ऊँगली जिसे चलना सिखाया मुद्दतों।

एक दिन उसके सहारे को तरस जाता है बाप।।

 

जब नुमाया कामयाबी चूमे बेटे के क़दम।

नज़्र दिलवाती है माँ सजदे में गिर जाता है बाप।।

 

ज़िन्दगी भर चलता रहता है मशीनों की तरह।

मौत की गोदी में एक दिन थक के सो जाता है बाप।।

 

रोते रोते बस यही कहता है वो हाय हुसैन।

जब कभी अपने जवाँ बेटे को दफनाता है बाप।।

 

कोई उन बच्चों से पूछे क्या है शादी का मज़ा।

ब्याह की तारीख़ रख के जिनकी मर जाता है बाप।।

 

रोज़-ए-आशूरा बना देती है है माँ सक़्क़ा हमें।

एक छोटा सा उठाने को अलम लाता है बाप।।

 

रो के ज़ैनब ने कहा बाबा भरा घर लुट गया।

उसको जब शाम-ए-गरीबाँ में नज़र आता है बाप।।

 

क्या कहूँगा हाल-ए-असग़र पूछ बैठे जो रबाब।

आगे जाता है कभी पीछे पलट आता है बाप।।

 

मांगने आती है जब दरबार में बाग़-ए-फ़िदक।

ग़मज़दा बेटी को जाने कितना याद आता है बाप।।

 

होने ही वाली है इस शाम-ए-गरीबाँ की सहर।

बाज़ुओं को चूम कर बेटी को समझाता है बाप।।

 

क़ैदखाने में हुआ कोहराम बच्ची मर गई।

ख़्वाब में एक शब् सकीना को नज़र आता है बाप।।

 

ये अजादारों का सदक़ा है जो बरज़ख़् में 'रज़ा'।

मजलिसों में रोते हम हैं और जज़ा पाता है बाप।।

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